अहोई अष्टमी व्रत कथा | Ahoi Ashtami Vrat Katha

Oct 29, 2023 | व्रत कथाएँ

॥ कथा का महत्त्व ॥

अहोई अष्टमी व्रत , माताएँ अपनी संतान की उन्नति , प्रगति और दीर्घायु के लिए रखती हैं । कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन अहोई अष्टमी होती है। इसे अहोई आठे तथा दांपत्य अष्टमी भी कहा जाता है ।

हिंदू कैलेंडर के अनुसार, अहोई अष्टमी का व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन किया जाता है करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद अष्टमी तिथि को देवी अहोई व्रत मनाया जाता है ।
और कह सकते है की यह दीपावली से ठीक सात दिन पहले आती है अतः दिवाली और अहोई अष्टमी का वार एक ही होता है ।

यह करवा चौथ त्यौहार के समान ही काफी अनुशासित व्रत के साथ मनाई जाती है, लेकिन यह त्यौहार विशेष रूप माँ द्वारा बेटों के लिए मनाया जाता है। पुत्रवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं, माँ अहोई (माँ दुर्गा का रूप) की पूजा करतीं और अपने बच्चों की लंबी उम्र और समृद्धि के लिए प्राथना करतीं हैं और सायंकाल तारे दिखाई देने के समय माताएँ तारों को करवा से अर्घ्य देती है ।

करवाचौथ में इस्तेमाल किए गए करवे में जल भर लिया जाता है। शाम को माता की विधि-विधान से पूजा के बाद उन्हें फल, फूल और मिठाई भोग लगाते हैं ।
उस करवे के जल को दीपावली के दिन पूरे घर में छिड़का जाता है। मान्यता है कि अहोई माता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाना शुभ होता है।

॥ पूजन सामग्री ॥

पूजन सामग्री को व्यवस्थित रूप से ( पूजन शुरू करने के पूर्व ) पूजा स्थल पर जमा कर रख लें, जिससे पूजन में अनावश्यक व्यवधान न हो।
यदि इनमे से कुछ सामग्री ना जुटा सकें तो कोई बात नहीं, जितनी सामग्री सहर्ष जुटा सकें उसी से भक्ति भावना से पूजा करें। क्योंकि कहा जाता है भगवान भावना से प्रसन होते है, सामग्री से नहीं।

  • चौकी, रोली, मौली, मेहंदी, अक्षत ( साबुत चावल )
  • दीपक, शुद्ध देशी घी, रुई, धूपबत्ती, फूल, अष्टगंध
  • अगरबत्ती, कपूर, जल का कलश।
  • प्रसाद के लिए गुड़, साबुत तिल, तिल कुट्टा, फल, दूध, मिठाई, नारियल, पंचामृत, सूखे मेवे, शक्कर, पान में से जो भी हो लें।
  • दक्षिणा।

॥ पूजन का मंडप ॥

पूजन को शुरु करने से पहले मंडप तैयार कर लें।

  1. अहोई अष्टमी पूजन के लिए दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाकर या चांदी से बनी अहोई माता की पूजा कर सकते हैं ।
  2. गोबर से या चित्रांकन के द्वारा कपड़े पर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है और उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं।
  3. चांदी की अहोई को हार की तरह धागे में डाला जाता है और उसके दोनों तरह चांदी के मोती जैसे दाने पिरोये जाते हैं। यह बना बनाया बाजार में उपलब्ध हो जाता है।
  4. पूजा के लिए साफ सुथरी जगह पर एक चौकी धोकर रखें। उस पर थोड़े गेहूं के दाने रखें। चौकी के चारो कोने पर एक एक टीकी लगा दें।
  5. एक कलश में पानी भरकर रखें। कलश मिट्टी, स्टील, तांबा का ले सकते हैं।
  6. कलश पर सातिया बना कर रोली, चावल लगाकर लच्छा बांध दें। उस पर ढ़क्कन रख कर उस पूरी और हलवा रखें।
  7. पूजा के लिए एक थाली में रोली, लच्छा, चावल, काजल, मेंहदी, पुष्प, भोग के लिए हलवा, पैसे व जल का लोटा रख लें ।
  8. कच्चे दूध व पानी से चांदी से बनी अहोई को स्नान कराके नया लच्छा पिरोकर अहोई को विराजमान करें।
  9. अहोई की रोली से टीका करें, चावल, लच्छा, काजल, मेहंदी, पुष्प आदि अर्पित करें, हलवे का भोग लगायें, दक्षिणा स्वरुप पैसे चढ़ायें।
  10. हाथ में सात गेंहू के दाने लेकर अहोई माता व गणेश जी कहानी सुने।

॥ पूजा विधि ॥

  1. पहले गणेश जी की पूजा करें।
  2. जल का छींटा देकर स्नान कराएं।
  3. फिर रोली का टीका लगाकर अक्षत अर्पित करें, लच्छा चढ़ायें।
  4. पुष्प या फूल माला अर्पित करें। दक्षिणा के रूप में कुछ पैसे चढ़ाएं।
  5. गणेश जी को भोग लगाये। श्रद्धा पूर्वक नमन करें।
  6. इसी प्रकार अहोई माता की पूजा करें। नमन करें।
  7. जल का छींटा देकर स्नान कराएं।
  8. फिर रोली का टीका लगाकर, मेहंदी व अक्षत अर्पित करें, लच्छा चढ़ायें।
  9. पुष्प या फूल माला अर्पित करें। दक्षिणा के रूप में कुछ पैसे चढ़ाएं।
  10. फिर हाथ में आखे (साबुत गेंहू ) लेकर अहोई माता की कहानी सुने।
  11. फिर गणेशजी की कहानी सुने।
  12. गणेश जी और अपने इष्ट देव की आरती गाएँ।
  13. इस प्रकार पूजा संपन्न होती है। अब थोड़ा प्रसाद खाएं।
  14. कथा सुनते समय हाथ में लिए गए आखे से तथा लोटे के पानी से सायंकाल तारे दिखाई देने के समय तारों को करवा से अर्घ्य देती है ।
  15. दूसरे दिन गणेश जी, अहोई माता या चाँदी की वस्तु जो भी आपने पूजा में रखी थी, वह संभालकर अपने पास रख लें तथा बाकि सभी सामान मंदिर में या ब्राह्मण को दे दें।

॥ अहोई अष्टमी व्रत कथा॥

॥ अहोई अष्टमी व्रत कथा (चन्द्रभान चन्द्रिका) – 1 ॥

बहुत समय पहले झाँसी के निकट एक नगर में चन्द्रभान नामक साहूकार रहता था। उसकी पत्नी चन्द्रिका बहुत सुंदर, सर्वगुण सम्पन्न, सती साध्वी, शिलवन्त चरित्रवान तथा बुद्धिमान थी ।
उसके कई पुत्र-पुत्रियां थी परंतु वे सभी छोटी आयु में ही परलोक सिधार चुके थे। दोनों पति-पत्नी संतान न रह जाने से व्यथित रहते थे। वे दोनों प्रतिदिन मन में सोचते कि हमारे मर जाने के बाद इस वंश कौन आगे ले जाएगा ।

एक बार उन दोनों ने निश्चय किया कि वनवास लेकर शेष जीवन प्रभु-भक्ति में व्यतीत करें। इस प्रकार वे दोनों अपना घर-बार त्यागकर वन की ओर चल दिए। रास्ते में जब थक जाते तो रुक कर थोड़ा विश्राम कर लेते और फिर चल पड़ते।
इस प्रकार धीरे-धीरे वे बद्रिका आश्रम के निकट शीतल कुण्ड जा पहुंचे। वहाँ पहुँचकर दोनों ने निराहार रह कर प्राण त्यागने का निश्चय कर लिया।

इस प्रकार निराहार व निर्जल रहते हुए उन्हें सात दिन हो गए तो आकाशवाणी हुई कि तुम दोनों प्राणी अपने प्राण मत त्यागो। यह सब दुःख तुम्हें तुम्हारे पूर्व पापों के कारण भोगना पड़ा है।
यदि तुम्हारी पत्नी कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष में आने वाली अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजन करे तो अहोई देवी (माँ दुर्गा का रूप) प्रसन्न होकर साक्षात दर्शन देगी।

तुम उनसे दीर्घायु पुत्रों का वरदान मांग लेना। व्रत के दिन तुम राधाकुण्ड में स्नान करना।
चन्द्रिका ने आकाशवाणी के बताए अनुसार विधि-विधान से अहोई अष्टमी को अहोई माता का व्रत और पूजा-अर्चना की और तत्पश्चात राधाकुण्ड में स्नान किया।

जब वे स्नान इत्यादि के बाद घर पहुँचे तो उस दम्पत्ति को अहोई माता ने साक्षात दर्शन देकर वर मांगने को कहा। साहूकार दम्पत्ति ने हाथ जोड़कर कहा, हमारे बच्चे कम आयु में ही परलोक सिधार जाते है।
आप हमें बच्चों की दीर्घायु का वरदान दें।

तथास्तु ! कहकर अहोई माता अंतर्ध्यान हो गई। कुछ समय के बाद साहूकार दम्पत्ति को दीर्घायु पुत्रों की प्राप्ति हुई और वे सुख पूर्वक अपना गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगे।

अहोई माता की जय !

॥ अहोई अष्टमी व्रत कथा ( सात बहुएँ-ननद )- 2 ॥

एक नगर में एक साहूकार रहा करता था, उसके सात लडके थे, सात बहुएँ तथा एक पुत्री थी। दीपावली से पहले कार्तिक बदी अष्टमी को सातों बहुएँ अपनी इकलौती ननद के साथ जंगल में मिट्टी लेने गई।
जहाँ से वे मिट्टी खोद रही थी। वही पर स्याऊ–सेहे की मांद थी। मिट्टी खोदते समय ननद के हाथ सेही का बच्चा मर गया।
संतान वियोग में स्याऊ माता बोली–कि अब मैं तुझे भी संतान विहीन कर दूंगी ।

तब ननद अपनी सातों भाभियों से बोली कि तुम में से कोई मेरे बदले ये पाप अपने ऊपर ले लो सभी भाभियों ने इंकार कर दिया परंतु छोटी भाभी सोचने लगी, यदि मैं ऐसा नहीं करुँगी तो सासू जी नाराज होंगी।
ऐसा विचार कर ननद के बदले छोटी भाभी ने ये पाप अपने ऊपर ले लिया उसके बाद जब उसे जो बच्चा होता वह सात दिन बाद मर जाता।

एक दिन साहूकार की स्त्री ने पंडित जी को बुलाकर पूछा की, क्या बात है मेरी इस बहु की संतान सातवें दिन क्यों मर जाती है?
तब पंडित जी ने बहू से कहा कि तुम काली गाय की पूजा किया करो। काली गाय स्याऊ माता की सहेली है, वह आशीर्वाद दे तभी तेरे बच्चे जियेंगे ।

इसके बाद से वह बहु प्रातःकाल उठ कर चुपचाप काली गाय के नीचे सफाई आदि कर जाती।
एक दिन गौ माता बोली–कि आज कल कौन मेरी सेवा कर रहा है, में आज देखूंगी। गौमाता खूब सुबह जागी तो क्या देखती है कि साहूकार की के बेटे की बहू उसके नीचे सफाई आदि कर रही है।
गौ माता उससे बोली कि तुझे किस चीज की इच्छा है जो तू मेरी इतनी सेवा कर रही है ? मांग क्या चीज मांगती है? तब साहूकार की बहू बोली की स्याऊ माता तुम्हारी सहेली है और वह आशीर्वाद दे तभी तेरे बच्चे जियेंगे ।

गौमाता ने कहा,–अच्छा तब गौ माता सात समुंदर पार अपनी सहेली के पास उसको लेकर चली। रस्ते में कड़ी धूप थी, इसलिए दोनों एक पेड़ के नीचे बैठ गई। थोड़ी देर में एक साँप आया और उसी पेड़ पर गरुड़ पंखनी के बच्चे थे उनको मारने लगा।
तब साहूकार की बहू ने सांप को मार कर ढाल के नीचे दबा दिया और बच्चों को बचा लिया। थोड़ी देर में गरुड़ पंखनी आई तो वहां खून पड़ा देखकर साहूकार की बहू को चोंच मारने लगी ।

तब साहूकार की बहू बोली–कि, मैंने तेरे बच्चे को मारा नहीं है बल्कि साँप तेरे बच्चे को डसने आया था। मैंने तो तेरे बच्चों की रक्षा की है।
यह सुनकर गरुड़ पंखनी खुश होकर बोली की मांग, तू क्या मांगती है? वह बोली, सात समुंदर पार स्याऊमाता रहती है। मुझे तू उसके पास पहुंचा दें।

तब गरुड़ पंखनी ने दोनों को अपनी पीठ पर बैठा कर स्याऊ माता के पास पहुंचा दिया।
स्याऊ माता उन्हें देखकर बोली की आ बहन बहुत दिनों बाद आई। फिर कहने लगी कि बहन मेरे सिर में जूं पड़ गई है। तब सुरही के कहने पर साहूकार की बहू ने सिलाई से उसकी जुएँ निकाल दी।
इस पर स्याऊ माता प्रसन्न होकर बोली कि तेरे सात बेटे और सात बहुएँ हो। साहूकार की बहू बोली–कि मेरा तो एक भी बेटा नहीं, सात कहाँ से होंगे ? तब साहूकार की बहू बोली आप ने ही मुझे संतान विहीन कर रखा है आप आशीर्वाद दे तो मेरे संतान होए ।

यह सुनकर स्याऊ माता बोली तूने तो मुझे ठग लिया, अब मुझे तुझे आशीर्वाद देना ही होगा । जा, तेरे घर में तुझे सात बेटे और सात बहुएँ मिलेंगी। तू जा कर उजमान करना। सात अहोई बनाकर सात कड़ाई करना।
वह घर लौट कर आई तो देखा सात बेटे और सात बहुएँ बैठी हैं । वह खुश हो गई। उसने सात अहोई बनाई, सात उजमान किये, सात कड़ाई की। दिवाली के दिन जेठानियाँ आपस में कहने लगी कि जल्दी जल्दी पूजा कर लो, कहीं छोटी बहू बच्चों को याद करके रोने न लगे।

थोड़ी देर में उन्होंने अपने बच्चों से कहा–अपनी चाची के घर जाकर देख आओ की वह अभी तक आई क्यों नहीं ?
बच्चों ने देखा और वापस जाकर कहा कि चाची तो कुछ मांड रही है, खूब उजमान हो रहा है। यह सुनते ही जेठानीयाँ दौड़ी-दौड़ी उसके घर गई और जाकर पूछने लगी ?

वह बोली ये सब स्याऊ माता के आशीर्वाद से सम्भव हुआ है । स्याऊ माता ने जिस प्रकार उस साहूकार की बहू को संतान सुःख का आशीर्वाद दिया उसी प्रकार हमे भी देना।
हे माँ भगवती , जैसे उस स्त्री को पापों से मुक्त कर पुत्र रत्न प्रदान किये वैसे ही सब पर कृपा बनाये रखना।
कहानी कहने और सुनने वाले सभी पर आशीवार्द बनाये रखना।

बोलो माँ भगवती, स्याऊ माता की…जय !!!

॥ गणेश जी की कथा ॥

एक बार गणेश जी एक छोटे बालक के रूप में चिमटी में चावल और चमचे में दूध लेकर निकले। वो हर किसी से कह रहे थे कि कोई मेरी खीर बना दो, कोई मेरी खीर बना दो।
कोई भी उनपर ध्यान नहीं दे रहा था बल्कि लोग उन पर हँस रहे थे। वे लगातार एक गांव के बाद, दूसरे गांव इसी तरह चक्कर लगाते हुए पुकारते रहे, पर कोई खीर बनाने के लिए तैयार नहीं था। सुबह से शाम हो गई गणेश जी लगातार घूमते रहे।

शाम के वक्त एक बुढ़िया अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी हुई थी, तभी गणेश जी वहां से पुकारते हुए निकले कि “कोई मेरी खीर बना दे, कोई मेरी खीर बना दे”, बुढ़िया बहुत कोमल ह्रदय वाली स्त्री थी।
उसने कहा “बेटा, मैं तेरी खीर बना देती हूं।” वह छोटा सा बर्तन चढ़ाने लगी तब गणेश जी ने कहा कि दादी मां छोटा सा बर्तन मत चढ़ाओ तुम्हारे घर में जो सबसे बड़ा बर्तन हो वही चढ़ा दो।
बुढ़िया ने वही चढ़ा दिया। वह देखती रह गई कि वह जो थोड़े से चावल उस बड़े बर्तन में डाली थी वह तो पूरा भर गया है। गणेश जी ने कहा “दादी मां मैं स्नान करके आता हूं तब तक तुम खीर बना लो। मैं वापस आकर खाऊँगा।”

खीर तैयार हो गई तो बुढ़िया के पोते पोती खीर खाने के लिए रोने लगे बुढ़िया ने कहा गणेश जी तेरे भोग लगना कहकर चूल्हे में थोड़ी सी खीर डाली और कटोरी भर भरकर बच्चों को दे दी।
अभी भी गणेश जी नहीं आए थे। बुढ़िया को भी भूख लग रही थी वह भी एक कटोरा खीर का भरकर के कीवाड़ के पीछे बैठकर एक बार फिर कहा कि गणेश जी आपके भोग लगे कहकर खाना शुरु कर दिया तभी गणेश जी आ गए।

बुढ़िया ने कहा “आजा रे बेटा खीर खा ले मैं तो तेरी ही राह देख रही थी”, गणेश जी ने कहा “दादी मां मैंने तो खीर पहले ही खा ली”
बुढ़िया ने कहा “कब खाई ?” गणेश जी ने कहा “जब तेरे पोते पोती ने खाई तब खाई थी और अब तूने खाई तो मेरा पेट पूरा ही भर गया।”

बुढ़िया ने पूछा, “मैं इतनी सारी खीर का क्या करूंगी ?” इस पर गणपति जी बोले, “सारे गांव को दावत दे दो”
बुढ़िया ने बड़े प्यार से, मन लगाकर खीर बनाई थी, खीर की भीनी-भीनी, मीठी-मीठी खुशबू चारों दिशाओं में फैल गई थी
वह हर घर में जाकर खीर खाने का न्योता देने लगी। लोग उस पर हँस रहे थे। बुढ़िया के घर में खाने को दाना नहीं और यह सारे गांव को खीर खाने की दावत दे रही है।
लोगों को कुतूहल हुआ और खीर की खुशबू से लोग खिंचे चले आए। लो ! सारा गाँव बुढ़िया के घर में इकट्ठा हो गया।

बुढ़िया ने पूरी नगरी जीमा दी फिर भी बर्तन पूरा ही भरा था, राजा को पता लगा तो बुढ़िया को बुलाया और कहा क्यों री बुढ़िया ऐसा बर्तन तेरे घर पर अच्छा लगे या हमारे घर पर अच्छा लगे ।
बुढ़िया ने कहा “राजा जी आप ले लो। “राजा जी ने खीर का बर्तन महल में मंगा लिया, लाते ही खीर में कीड़े, मकोड़े, बिच्छू हो गए और दुर्गंध आने लगी।

यह देखकर राजा ने बुढ़िया से कहा, “बुढ़िया बर्तन वापस ले जा, जा तुझे हमने दिया।”
बुढ़िया ने कहा “राजा जी आप देते तो पहले ही कभी दे देते यह बर्तन तो मुझे मेरे गणेश जी ने दिया है” बुढ़िया ने बर्तन वापस लिया, लेते ही सुगंधित की हो गई ।
घर आकर बुढ़िया ने गणेश जी से कहा, बची हुई खीर का क्या करें ?
गणेश जी ने कहा “झोपड़ी के कोने में खड़ा खोदकर गाड़ दो । उसी जगह सुबह उठकर वापस खोदेगी तो धन के दो चरे मिलेंगे।”

ऐसा कहकर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए जाते समय झोपड़ी के लात मारते हुए गये तो झोपड़ी के स्थान पर महल हो गया। सुबह बुढ़िया ने फावड़ा लेकर घर को खोद ने लगी तो टन टन करते दो धन के चरे निकल आए ।

वह बहुत खुश थी। उसकी सारी दरिद्रता दूर हो गई और वह आराम से रहने लगी। उसने गणपति जी का एक भव्य मंदिर बनवाया और साथ में एक बड़ा सा तालाब भी खुदवाया।
इस तरह उसका नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया। उस जगह वार्षिक मेले लगने लगे। लोग गणेश जी की कृपा प्राप्त करने के लिए, उस स्थान पर पूजा करने और मान्यताएं मानने के लिए आने लगे।
गणेश जी सब की मनोकामनाएं पूरी करने लगे.

गणेश जी जैसा आपने बुढ़िया को दिया वैसा सबको देना विनायक जी की कहानी कहने वाले और आसपास के सुनने वाले सब को देना।

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