वट सावित्री व्रत कथा | Vat Savitri Vrat Katha

Oct 31, 2023 | व्रत कथाएँ

॥ व्रत का महत्त्व ॥

वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है।
इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं।

स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।

तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है, सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना।
कई व्रत विशेषज्ञ यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक करने में भरोसा रखते हैं। इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है।
विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा हितकर मानते हैं।

वट सावित्री व्रत में ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है।
पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है।

वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूप में विकसित हो गई हो।

दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के नाते भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था।

इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना इस व्रत का अंग बना। महिलाएँ व्रत-पूजन कर कथा कर्म के साथ-साथ वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे परिक्रमा के दौरान लपेटती हैं।
दोनों व्रत को करने की तथा पूजन करने की विधि समान ही होती है। इस दिन बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है। बरगद का पेड़ घरेलु उपचार में बहुत काम आता है।

॥ पूजन सामग्री ॥

पूजन सामग्री को व्यवस्थित रूप से ( पूजन शुरू करने के पूर्व ) पूजा स्थल पर जमा कर रख लें, जिससे पूजन में अनावश्यक व्यवधान न हो।
यदि इनमे से कुछ सामग्री ना जुटा सकें तो कोई बात नहीं, जितनी सामग्री सहर्ष जुटा सकें उसी से भक्ति भावना से पूजा करें। क्योंकि कहा जाता है भगवान भावना से प्रसन होते है, सामग्री से नहीं।

  • चौकी, रोली, मौली, मेहंदी, अक्षत ( साबुत चावल )
  • दीपक, शुद्ध देशी घी, रुई, धूपबत्ती, फूल, अष्टगंध
  • अगरबत्ती, कपूर, जल का कलश।
  • प्रसाद के लिए गुड़, फल, दूध, मिठाई, नारियल, पंचामृत, सूखे मेवे, शक्कर, पान में से जो भी हो लें।
  • दक्षिणा।

॥ पूजा विधि ॥

  • एक थाली में पूजा के सामान रखें – रोली, मोली,चावल, हल्दी, गुड़, भीगे चने, फूल माला, दीपक तथा जल का लोटा रखें।
  • पूजा स्थल पर पहले रंगोली बना लें, उसके बाद अपनी पूजा की सामग्री वहां रखें।
  • अपने पूजा स्थल पर एक चौकी पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर लक्ष्मी नारायण और शिव-पार्वती की प्रतिमा या मूर्ति स्थापित करें।
  • बरगद का पेड़ न मिलने पर पूजा स्थल पर तुलसी का पौधा रखें।
  • सबसे पहले गणेश जी और माता गौरी की पूजा करें। तत्पश्चात बरगद के वृक्ष की पूजा करें।
  • बरगद के पेड़ के पास जाकर पेड़ को रोली का टिका करें। चावल अर्पित करें। चना , गुड़ चढ़ाकर दीपक जला दें।
  • हल्दी में कच्चे सूत के धागे को रंगकर बरगद के पेड़ से लपेट दें।
  • पेड़ की सात परिक्रमा करें। बड़ के पत्तों की माला बना कर पहन लें।
  • इसके बाद सावित्री-सत्यवान की कथा का पाठ करें और अन्य लोगों को भी सुनाएं।। भीगे चने, वस्त्र और कुछ धन अपनी सास को देकर आशिर्वाद प्राप्त करें
  • निर्धन गरीब स्त्री को सुहाग की सामाग्री दान दें।

॥ वट सावित्री व्रत की कथा ॥

प्राचीन काल में अश्वपति नाम के राजा थे उनके कोई संतान नहीं थी। उन्होंने ब्रह्मा की पत्नी विधात्री की तपस्या की । विधात्री की कृपा से राजा के यहाँ सुंदर कन्या ने जन्म लिया। लड़की का नाम सावित्री रखा।
सावित्री बहुत रूपवान और गुणी थी। राजा ने पंडितों से उसकी शादी की चर्चा की। पंडितों ने राजा को सलाह दी की सावित्री को खुद अपना वर चुनने की आज्ञा दें। राजा ने ऐसा ही किया।

एक बार सावित्री, सत्यवान और उसके माता पिता से मिली। सत्यवान के रूप, गुण और लक्षण देखकर उसे अपना पति चुन लिया। राजा सावित्री की शादी सत्यवान से करने को तैयार हो गए ।
जब नारद जी को यह बात पता चली तो नारद जी ने राजा से कहा, हे राजन ! सावित्री ने जो पति चुना है वह बुद्धि में ब्रह्मा के समान, सुंदरता में कामदेव के समान, वीरता में शिव के समान और क्षमा में पृथ्वी के समान है।
लेकिन वह अल्प आयु है और एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।

राजा यह जानकर बहुत दुखी हुए उन्होंने यह बात सावित्री को बताई और कोई दूसरा वर चुनने के लिए कहा। सावित्री ने कहा क्षत्राणी एक बार ही वर चुनती है और मैं सत्यवान को वर चुन चुकी हूँ।
तब राजा ने सत्यवान व सावित्री का विवाह करवा दिया।

सावित्री ने ससुराल पहुंचते ही अपने नेत्रहीन सास ससुर की सेवा शुरू कर दी। बचपन से सावित्री शिव आराधना किया करती थी। उसे अपने भविष्य के बारे में मालूम था।
शादी के बाद भी वह ॐ नमः शिवाय का जप करने लगी और आने वाले संकट से बचने के लिए प्रार्थना करने लगी।

सपने में शिव जी ने उसे वट वृक्ष अर्थात बरगद के पेड़ की पूजा करने के लिए कहा। सावित्री ने नियम पूर्वक वट वृक्ष की पूजा आरम्भ कर दी।
जब सत्यवान की मृत्यु होने में तीन दिन शेष रह गए तो उसने खाना पीना छोड़ कर कठोर व्रत किया।

ज्येष्ठ महीने की अमावस्या वाले दिन सत्यवान जब लकड़ी काटने के लिए जंगल को जाने लगा तब सास ससुर की आज्ञा लेकर सावित्री भी साथ चली गयी।
लकड़ी काटते काटते सत्यवान के सिर में दर्द होने लगा तो सावित्री बोली मेरे गोद में सिर रख कर थोड़ी देर आराम कर लीजिये।

सावित्री की गोद में लेटते ही सत्यवान की मृत्यु हो गयी।
यमराज सत्यवान की आत्मा को ले जाने लगे तो व्रत के प्रभाव से सावित्री को यमराज दिखाई देने लगे। वह यमराज के पीछे-पीछे चल पड़ी।

यमराज ने कहा, वह उनके पीछे नहीं आवे उन्हें उनका काम करने दें, किन्तु वह बोली मैं अपने पति के बिना एक क्षण भी नहीं रह सकती, इसलिए मैं अपने पति के साथ चलूँगी।
यमराज ने कहा की, तुम मेरे साथ नहीं चल सकती, सत्यवान के अलावा कोई भी वर मांग ले। सावित्री बोली मेरे सास ससुर राज्य छोड़कर अंधे होकर रहे हैं। उनकी आँखों की रौशनी और राज पाट उन्हें वापस मिले।
यमराज ने ‘तथास्तु’ कहा।

सावित्री फिर भी यमराज के पीछे चलने लगी। सावित्री बोली मै सत्यवान के बिना नहीं रह सकती। यमराज बोले सत्यवान को छोड़कर , एक वर और मांग लो। सावित्री ने कहा मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है।
उन्हें सौ पुत्र मिलें। यमराज ने ‘तथास्तु’ कह दिया।

सावित्री फिर भी यमराज के पीछे चलने लगी। यमराज क्रोध में आकर बोले दो वरदान देने के बाद भी तुम वापस नहीं लौटती। सावित्री बोली महाराज सत्यवान के बिना मेरा जीवन कुछ नहीं। इसलिए मैं नही लौटी।
यमराज बोले अब आखरी बार सत्यवान को छोड़कर एक वर और देता हूँ। सावित्री ने कहा मुझे सौ पुत्र और अटल राजपाट मिले। यमराज ने ‘तथास्तु’ कहा और जाने लगे।

पीछे मुड़कर देखा तो सावित्री पीछे आ रही थी। गुस्से से कुपित होकर बोले अब तू नहीं लौटी तो तुझे श्राप दे दूंगा। सावित्री हाथ जोड़कर बोली महाराज एक पतिव्रता स्त्री को आपने सौ पुत्रों का वरदान दिया है। पति सत्यवान के बिना यह कैसे संभव है ?
यमराज को अपनी गलती समझ आ गयी और उन्हें सत्यवान को वापस लौटाना पड़ा। सत्यवान जीवित होकर खड़े हो गए।

सावित्री और सत्यवान ने गाजे बजे के साथ वट वृक्ष की पूजा की। पत्तों के गहने बनाकर पहने तो वे हीरे मोती के हो गए। घर वापस लौटे तो देखा सास ससुर की आँखों की रोशनी वापस आ गयी थी और राजपाट भी वापस मिल गया।
पिता अश्वपति के सौ पुत्र हुए। सत्यवान को राजगद्दी मिली। चारों तरफ सावित्री के व्रत की चर्चा होने लगी।

हे वट वृक्ष ! जैसा सावित्री को सुहाग और वैभव दिया वैसा हमें भी देना। कहानी कहने वाले , सुनने वाले को भी देना।

॥ गणेश जी की कथा ॥

एक बार गणेश जी एक छोटे बालक के रूप में चिमटी में चावल और चमचे में दूध लेकर निकले। वो हर किसी से कह रहे थे कि कोई मेरी खीर बना दो, कोई मेरी खीर बना दो।
कोई भी उनपर ध्यान नहीं दे रहा था बल्कि लोग उन पर हँस रहे थे। वे लगातार एक गांव के बाद, दूसरे गांव इसी तरह चक्कर लगाते हुए पुकारते रहे, पर कोई खीर बनाने के लिए तैयार नहीं था। सुबह से शाम हो गई गणेश जी लगातार घूमते रहे।

शाम के वक्त एक बुढ़िया अपनी झोपड़ी के बाहर बैठी हुई थी, तभी गणेश जी वहां से पुकारते हुए निकले कि “कोई मेरी खीर बना दे, कोई मेरी खीर बना दे”, बुढ़िया बहुत कोमल ह्रदय वाली स्त्री थी।
उसने कहा “बेटा, मैं तेरी खीर बना देती हूं।” वह छोटा सा बर्तन चढ़ाने लगी तब गणेश जी ने कहा कि दादी मां छोटा सा बर्तन मत चढ़ाओ तुम्हारे घर में जो सबसे बड़ा बर्तन हो वही चढ़ा दो।
बुढ़िया ने वही चढ़ा दिया। वह देखती रह गई कि वह जो थोड़े से चावल उस बड़े बर्तन में डाली थी वह तो पूरा भर गया है। गणेश जी ने कहा “दादी मां मैं स्नान करके आता हूं तब तक तुम खीर बना लो। मैं वापस आकर खाऊँगा।”

खीर तैयार हो गई तो बुढ़िया के पोते पोती खीर खाने के लिए रोने लगे बुढ़िया ने कहा गणेश जी तेरे भोग लगना कहकर चूल्हे में थोड़ी सी खीर डाली और कटोरी भर भरकर बच्चों को दे दी।
अभी भी गणेश जी नहीं आए थे। बुढ़िया को भी भूख लग रही थी वह भी एक कटोरा खीर का भरकर के कीवाड़ के पीछे बैठकर एक बार फिर कहा कि गणेश जी आपके भोग लगे कहकर खाना शुरु कर दिया तभी गणेश जी आ गए।

बुढ़िया ने कहा “आजा रे बेटा खीर खा ले मैं तो तेरी ही राह देख रही थी”, गणेश जी ने कहा “दादी मां मैंने तो खीर पहले ही खा ली”
बुढ़िया ने कहा “कब खाई ?” गणेश जी ने कहा “जब तेरे पोते पोती ने खाई तब खाई थी और अब तूने खाई तो मेरा पेट पूरा ही भर गया।”

बुढ़िया ने पूछा, “मैं इतनी सारी खीर का क्या करूंगी ?” इस पर गणपति जी बोले, “सारे गांव को दावत दे दो”
बुढ़िया ने बड़े प्यार से, मन लगाकर खीर बनाई थी, खीर की भीनी-भीनी, मीठी-मीठी खुशबू चारों दिशाओं में फैल गई थी
वह हर घर में जाकर खीर खाने का न्योता देने लगी। लोग उस पर हँस रहे थे। बुढ़िया के घर में खाने को दाना नहीं और यह सारे गांव को खीर खाने की दावत दे रही है।
लोगों को कुतूहल हुआ और खीर की खुशबू से लोग खिंचे चले आए। लो ! सारा गाँव बुढ़िया के घर में इकट्ठा हो गया।

बुढ़िया ने पूरी नगरी जीमा दी फिर भी बर्तन पूरा ही भरा था, राजा को पता लगा तो बुढ़िया को बुलाया और कहा क्यों री बुढ़िया ऐसा बर्तन तेरे घर पर अच्छा लगे या हमारे घर पर अच्छा लगे ।
बुढ़िया ने कहा “राजा जी आप ले लो। “राजा जी ने खीर का बर्तन महल में मंगा लिया, लाते ही खीर में कीड़े, मकोड़े, बिच्छू हो गए और दुर्गंध आने लगी।

यह देखकर राजा ने बुढ़िया से कहा, “बुढ़िया बर्तन वापस ले जा, जा तुझे हमने दिया।”
बुढ़िया ने कहा “राजा जी आप देते तो पहले ही कभी दे देते यह बर्तन तो मुझे मेरे गणेश जी ने दिया है” बुढ़िया ने बर्तन वापस लिया, लेते ही सुगंधित की हो गई ।
घर आकर बुढ़िया ने गणेश जी से कहा, बची हुई खीर का क्या करें ?
गणेश जी ने कहा “झोपड़ी के कोने में खड़ा खोदकर गाड़ दो । उसी जगह सुबह उठकर वापस खोदेगी तो धन के दो चरे मिलेंगे।”

ऐसा कहकर गणेश जी अंतर्ध्यान हो गए जाते समय झोपड़ी के लात मारते हुए गये तो झोपड़ी के स्थान पर महल हो गया। सुबह बुढ़िया ने फावड़ा लेकर घर को खोद ने लगी तो टन टन करते दो धन के चरे निकल आए ।

वह बहुत खुश थी। उसकी सारी दरिद्रता दूर हो गई और वह आराम से रहने लगी। उसने गणपति जी का एक भव्य मंदिर बनवाया और साथ में एक बड़ा सा तालाब भी खुदवाया।
इस तरह उसका नाम दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया। उस जगह वार्षिक मेले लगने लगे। लोग गणेश जी की कृपा प्राप्त करने के लिए, उस स्थान पर पूजा करने और मान्यताएं मानने के लिए आने लगे।
गणेश जी सब की मनोकामनाएं पूरी करने लगे.

गणेश जी जैसा आपने बुढ़िया को दिया वैसा सबको देना विनायक जी की कहानी कहने वाले और आसपास के सुनने वाले सब को देना।

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